फैण्टेसी क्या है | हिंदी साहित्य | काव्यशास्त्र | Fantasy in Hindi (2024)

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काव्यशास्त्र में प्रचलित फैण्टेसी’(Fantasy in Hindi) शब्द एक अंग्रेजी शब्द है जो यूनानी शब्द ’फैण्टेसिया’ से निर्मित है। यूनानी शब्द कैण्टेसिया का अभिप्राय है मनुष्य की वह क्षमता जो संभाव्य संसार की सर्जना करती है।

फैण्टेसी – Fantasy in Hindi

Table of Contents

फैण्टेसी क्या है | हिंदी साहित्य | काव्यशास्त्र | Fantasy in Hindi (1)

फैण्टेसी का अर्थ

इस प्रकार फैण्टेसी का अर्थ होता है-स्वप्नचित्र रचना-प्रक्रिया अथवा सृजनशीलता में रचनाकार जब बाह्य परिवेश को पूर्णतया आत्मसात् करता है|

तब उस सृजनशील रचनाकार के हृदय में एक धुंधला रहस्यमय कल्पना-चित्र उभरता है और यह स्वप्निल प्रभाव उसके अभिव्यक्ति-पक्ष का माध्यम बन जाता है, इसी को ’फैण्टेसी’ कहा जाता हैं।

फैण्टेसी एक टेक्नीक है जिसका प्रयोग एक सृजनशील साहित्यकार अपनी रचना प्रक्रिया में करता है।

मनुष्य के शैशव स्वभाव का एक अभिन्न अंग है, फैण्टेसी। इसे इस प्रकार भी कहा जा सकता है कि रचनाकार के भीतर छिपा हुआ ’शिशु’ ही साहित्यिक ’फैण्टेसी’ का निर्माण करता है।

वस्तुतः यह एक विशिष्ट कल्पना शक्ति है, जिसे दिवास्वप्नात्मक अथवा दुःस्वप्नात्मक बिम्ब की भी संज्ञा दी जा सकती है।

इसे माया का आवरण, स्वप्नशीलता का पूरक एक मनोवैज्ञानिक आवश्यकता, सनक, अन्वेषण का रूप भी माना गया है।

क्षमता का व्यापक विकास न होने के कारण कुछ लोग इसे शकुन अथवा देव-प्रकटीकरण के रूप में भी देखते हैं तो बीसवीं शती में फैंटेसी को दिवास्वप्न का पर्याय मान लिया गया।

फैण्टेसी की अवधारणा – Fantasy kya Hai

मनोवैज्ञानिक दृष्टि से फैंटेसी का संबंध उसके विचार-प्रवाह तथा उसी की चक्षु बिम्बात्मक अभिव्यक्ति से है। मनोवैज्ञानिक दार्शनिक फ्रायड ने संपूर्ण साहित्य-सृजन को फैण्टेसी का एक प्रकार माना है।

दरअसल, फैण्टेसी एक प्रक्रिया है जो अतीत की एक घटना अथवा कल्पित घटना के साथ जुङकर संवेदनाओं, अनुभूतियों को स्वप्नचित्रों में परिवर्तित कर देती है।

विचारों के विवेचन में भी फैंटेसी का महत्त्वपूर्ण स्थान है, कुछ मनोवैज्ञानिकों के अनुसार फैण्टेसी बाह्य जगत् को समझने में अन्तर्दृष्टि प्रदान करती है।

सिगर के शब्दों में , ’’फैण्टेसी की संज्ञानात्मक निपुणता समझना चाहिए जो तादात्म्य अनुकरण तथा क्रीङा भाव के कारण अधिक विकसित होती है। इसका संबंध व्यक्ति के अहं भाव के साथ है जो सूक्ष्म विचारों को सहज संप्रेषणीय बनाती है।’’

समकालीन साहित्य में तथा समीक्षाशास्त्रियों के वर्तमान परिदृश्य में फैंटेसी एक विशिष्ट पारिभाषिक शब्द बन गया है जो विशेष प्रकार के साहित्य तथा अभिव्यक्ति उपकरण के रूप में प्रयुक्त किया जाता है।

मानविकी पारिभाषिक कोश के अनुसार ’’फैंटेसी एक स्वप्नचित्रमूलक साहित्य है, जिसमें असम्भाव्य संभावनाओं को प्राथमिकता दी जाती है।’’

वस्तुतः फैण्टेसी के तीन प्रयोजन हैं –

  • मनोरंजन
  • यथार्थ से पलायन
  • मानव एवं दोषयुक्त संसार के प्रति नवीन दृष्टिकोण।

देवकीनन्दन खत्री के तिलस्मी उपन्यासों में फैंटेसी के निर्धारित प्रयोजनों में प्रथम दो को प्रभावी रूप से देखा जा सकता है, तीसरे प्रयोजन के उदाहरण पाश्चात्य भाषाओं में स्विफ्ट की ’गुलीवर्ज ट्रेवेल्स’ तथा वाल्तेयर की ’कांकीद’ इत्यादि रचनाओं में मिल जाता है।

आजकल ऐसी रचनाएँ नहीं लिखी जा रही हैं फिर भी कहीं ज्यादा गहरे स्तर पर वहाँ स्वप्नचित्रों को लक्षित किया जा सकता है।

प्रत्येक रचना प्रक्रिया में फैण्टेसी की सर्जना शक्ति छिपी हुई है इसलिए रचनाकार कहीं न कहीं फैण्टेसी जैसे तत्त्व का इस्तेमाल करता ही है और अनेक गंभीर रचनाओं में फैण्टेसी के अंशों का स्पष्ट प्रभाव देखा जा सकता है।

जयशंकर प्रसाद की ’कामायनी’, मुक्तिबोध की ’अँधेरे में’, अज्ञेय कृत ’अपने-अपने अजनबी’, निर्मल वर्मा कृत ’एक चिथङा सुख’ जैसी अनेक रचनाएँ जो अनुभव के धरातल पर तीव्र अन्तर्द्वद्व को मूर्त रूप प्रदान करती हैं, फैण्टेसी परक होती हैं।

कुछ रचनाओं की समग्रता फैंटेसी प्रेरक नहीं है अपितु उसका कुछ अंश फैण्टेसी से प्रभावित होता है जिसका आकलन फैण्टेसी मूलक विचार प्रवाह में पङकर किया जाता है।

अजन्मे कल के विषय में आशावादी दृष्टिकोण अपनाने वाले और उसे आज से बेहतर मानने वाले रचनाकार फैंटेसी से अधिक काम लेते हैं।

फैंटेसी में मन की निगूढ़ वृत्तियों का अनुभूत जीवन-समस्याओं का इच्छित विश्वासों और इच्छित जीवन स्थितियों का प्रक्षेप है।

रचना-प्रक्रिया में रचनाकार जीवन-जगत् के तथ्यों, प्रभावात्मक आग्रहों को, नेपथ्य में रखकर तथ्यों की स्वानुभूत विशेषताओं का स्वप्न चित्रात्मक प्रक्षेप करता है।

मुक्तिबोध की कविताओं में अनेक जगह फैण्टेसी का स्पष्ट प्रयोग परिलक्षित होता है, उनका एक स्वप्न चित्र या फैण्टेसी को ’पता नहीं’ शीर्षक कविता में क्रान्ति की कामना के उदित होने की एक घटनात्मक चित्र में प्रभावी रूप से देखा जा सकता है-

मुख है कि मात्र आँख हैं वे आलोक भरी
जो सतत् तुम्हारी चाह लिए होती गहरी
इतनी गहरी कि तुम्हारी थाहों में अजीत हलचल
मानों अनजाने रत्नों की
अनपहचानी-सी चोरी में
धर लिये गए, निज में बसने, किसलिए गए।

यहाँ स्पष्ट है कि कविता में प्रयुक्त ’तुम’ मुक्तिबोध का अप्रस्तुत श्रोता है जिसके दुःख से द्रवित होकर मुक्तिबोध बार-बार उसे संबोधित करते हैं।

अपने अप्रस्तुत श्रोता को कवि बताता है कि उषा की आलोक भरी आँखें उसकी मानसिक थाह के साथ इतनी गहरी हो जाती हैं कि पाठक-श्रोता के मन में हलचल मच जाती है, उसे लगता है कि वह अनजाने रत्नों की चोरी में धर-कस लिया गया।

फिर अचानक वह स्वयं को स्वप्नों में घिरा पाता है। स्वप्न की समाप्ति एक प्रश्न चिह्न खङा कर देती है कि पता नहीं जिंदगी आगे किन खतरों से जूझेगी।

गजानन माधव मुक्तिबोध ने ’एक साहित्यिक की डायरी’ में कला के तीन क्षणों की विवेचना है –

(। ) जीवन का उत्कट तीव्र अनुभव क्षण

(।।) अपने कसकते, दुःखते मूलों में इस अनुभव की पृथक्ता और आँखों के सामने फैंटेसी में रूपांतरण,

(।।। ) इस फैंटेसी के शब्दबद्ध होने की प्रक्रिया का आरंभ।

उस प्रक्रिया की परिपूर्णावस्था तक की गतिमानता रचना-प्रक्रिया में फैण्टेसी का मर्म किए परिदृश्य का रूप ग्रहण कर लेता है, और इस संदर्भ में उपर्युक्त कविता में स्वर्गीय उषा ’क्रान्ति’ या नवजागरण का ऐसा स्वप्न तथा उमंग भरता है।

वह इस सपने में कस लिया जाता है और अब तक के अनजाने विचार-रत्नोें को चुराकर प्रबिद्ध हो जाता है।

चोरी में प्राथमिक आशंका के भाव निहित है और इसी स्वप्नचित्र के बीच मुक्तिबोध का प्रिय शक्तिपुरुष उपस्थित होता है जो जनक्रांति का अग्रदूत है।

यहाँ यह एक स्पष्ट करना आवश्यक है कि फैंटेसी का कोई एक अर्थ की अंतिम अर्थ नहीं क्योंकि फैण्टेसी का विधान ही अर्थ की निरन्तरता के लिए किया जाता है।

वस्तुतः प्रस्तुत तथा अप्रस्तुत की असंगति सबसे ज्यादा फैण्टेसी में होती है। बाह्य जगत् और कवि चेतना के द्वंद्व उसे अभिव्यक्ति देने की कोशिश में ही रचनाकार फैण्टेसी का विधान करता जाता है।

मुक्तिबोध ने फैण्टेसी को अनुभव की कन्या तथा कृति को फैण्टेसी की पुत्री कहा है। फैण्टेसी के क्षण में वैयक्तिक अनुभव परिवर्तित होकर निर्वैयक्तिक हो जाता है।

स्थितिबद्ध और स्थितिमुक्त वैयक्तिकता का समन्वय उच्चतर स्थिति में पहुँच जाता है और इसके फलस्वरूप जो प्रभाव अभास-मात्र होते हैं|

वे कवि के मानस-पटल पर चित्र बनकर उभरते मात्र होते हैं और उन चित्रों को वह भाषाबद्ध करता है।

यही कारण है कि रचनाकार के मानस पटल पर आंकलित फैंटेसी और शब्दबद्ध फैण्टेसी में अंतर पाया जाता है, शब्दबद्ध होकर स्वप्न यथार्थ में परिवर्तित हो जाता है।

मुक्तिबोध के मतानुसार-

’’कला के तीसरे क्षण में फैण्टेसी का मूल मर्म, अनेक संबंधित जीवनानुभवों से उत्पन्न भावों और स्वप्नों से मुक्त होकर इतना अधिक बदल जाता है कि लेखक उस पूरी फैण्टेसी उसे ’पर्सपेक्टिव’ कहते हैं।

मूर्त होकर जो फैण्टेसी हमारे समक्ष उपस्थित होती है वह फैण्टेसी की प्रतिकृति नहीं अपितु फैण्टेसी-प्रसूत होती है।

फैण्टेसी के रूप में अप्रस्तुत विधान सार्वजनीन समृद्ध हो जाता है और यह सार्वजनीनता अभिव्यक्ति प्रक्रिया में शब्दों के अर्थ के अर्थस्पन्दनों द्वारा पैदा होती है। अर्थस्पंदनों के पीछे सार्वजनिक सामाजिक अनुभवों की एक लंबी परंपरा होती है।

इसलिए अर्थपरंपराएँ फैण्टेसी के मूल अर्थ को काटती ही नहीं हैं, तराशती भी हैं, रंगहीन ही नहीं करती, नया रंग भी चढ़ाती हैं, इसके अतिरिक्त उसे नये भावों, विचार-प्रवाहों से संपन्न करके अर्थक्षेत्र का विस्तार करती है।

इसी कारण छोटी कविताओं में कुछ अधूरापन-सा नजर आता है, क्योंकि वहाँ ये परिदृश्य उभर नहीं पाते। आज के संघर्ष जीवन में भी अभिव्यक्ति के सारे खतरे उठाकर रचनाकार अपना पक्ष चुनने को विवश है।’’

फैण्टेसी का उपयोग लेखक के लिए कई अर्थों में सुविधाजनक होता है। स्वप्न चित्रात्मकता विधान यदि न होता तो ’अँधेरे में ’ जैसी कविताएँ सिर्फ एकालाप बनकर रह जाती।

सूक्ष्मातिसूक्ष्म प्रतीक योजना भी अर्थों के अनेकायामी स्तर खोलने में अक्षम है, फैण्टेसी के प्रयोग से किसी एक विचारधारा से प्रतिबद्ध रचनाकार भी पुनरावृत्ति जैसे दोष से ग्रस्त नहीं होता, क्योंकि फैण्टेसी से वस्तुपक्ष को गौण रखकर भावों की भाषा में उसे ध्वनित करने की अपूर्व क्षमता होती है। जीवन में जो घटनाएँ, विचार असंगत कहे जाते हैं, फैण्टेसी में वे ही संगीत का उन्मेष करते हैं।

अतः कलात्मक प्रच्छन्नता के अतिरिक्त फैण्टेसी में असंगति के द्वारा संगीत-निदर्शन की सुविधा अन्य प्रतिमानों से अधिक हैं। स्वप्निल प्रभाव में असंभव को संभव दिखाने की क्षमता है, तभी तो मुक्तिबोध का ’पुरुष’ अपनी भुजाओं पर आसमान उठा लेता है, आग में कमल खिला सकता है।

मुक्तिबोध की मान्यता है कि फैण्टेसी के उपयोग की सुविधाओं में एक यह भी है कि इसके द्वारा जिये और भोगे गये जीवन की वास्तविकताओं के बौद्धिक अथवा सारभूत निष्कर्षों को अथवा जीवन-ज्ञान को कल्पना के रंगों में प्रस्तुत किया जा सकता है।

फैण्टेसी के द्वारा साहित्यकार साहित्य में विलक्षण कलात्मकता में श्रीवृद्धि करता ही है साथ ही वास्तविकता के प्रदीर्घ ज्ञान गर्भ फैण्टेसी द्वारा सार रूप में जीवन की पुनर्रचना अथवा पुनस्सर्जना भी करता है।

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Author: Amb. Frankie Simonis

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Name: Amb. Frankie Simonis

Birthday: 1998-02-19

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Job: Forward IT Agent

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Introduction: My name is Amb. Frankie Simonis, I am a hilarious, enchanting, energetic, cooperative, innocent, cute, joyous person who loves writing and wants to share my knowledge and understanding with you.